Monday, September 13, 2010

चांदी के सिक्के

दोस्तो क्यों परेशान होते हो,
क्यों हैरान होते हो,
चांदी के चंद सिक्कों के लिए,
ज़रा सोचो,
चांदी के सिक्कों का करोगे क्या !

क्या इन सिक्कों को
आंखो पर रखने से नींद आ जाएगी,
या फिर इनसे,
रात की करवटें रुक जायेंगी,
और तो और, क्या कोई बतायेगा,
कि इन सिक्कों को देख कर,
क्या ‘यमदूत’ डर कर लौट जायेंगे,

या फिर, इन सिक्कों पर बैठ कर,
तुम स्वर्ग चले जाओगे,
या इन्हें जेब में रख कर,
अजर-अमर हो जाओगे,
अगर तुम सोचते हो,
ऐसा कुछ हो सकता है,
तो चांदी के सिक्के अच्छे हैं,
और तुम्हारी इनके लिए मारामारी अच्छी है,

अगर ऐसा कुछ न हो सके,
तो तुम से तो,
तुम्हारे चांदी के सिक्के अच्छे हैं,
तुम रहो, या न रहो,
ये सिक्के तो रहेंगे,
न तो तुम्हारे अपने और न ही ये सिक्के,
तुम्हें कभी याद करेंगे,

अगर ऐसा हुआ या होगा !
फिर ज़रा सोचो,
क्यों परेशान होते हो,
चांदी के चंद सिक्कों के लिए,
अगर होना ही है परेशान,
रहना ही है जीवन भर हलाकान्,
तो उन कदमों के लिए हो,
जो कदम उठें तो,
पर उठ कर कदम न रहें,
बन जायें रास्ते,
सदा के लिए, सदियोँ के लिये,
न सिर्फ तुम्हारे लिए,
न सिर्फ हमारे लिए..........।

Sunday, September 12, 2010

क्या महिलाओं के बिना मानव जीवन संभव है !!!

महिलाओं के बिना मानव जीवन की कल्पना करना क्या उचित है ... आये दिन सुनने - पढने में आता है कि कन्याओं को जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है आखिर क्यों लोग पुत्र ही पैदा करने के लिये उत्साही हो रहे हैं, पुत्र के जन्म को गर्व का विषय क्यों माना जा रहा है, पुत्र के जन्म पर खुशियां और पुत्री के जन्म पर मायुसी का आलम .... क्यों , किसलिये !!! .... पुत्र या पुत्री के जन्म में ये भेदभाव क्या प्राकर्तिक, सामाजिक व व्यवहारिक रूप से उचित है .... नहीं, यह भेदभाव सर्वथा अनुचित है।

...जरा सोचो अगर यह सिलसिला चलता रहा तो धीरे-धीरे लडकिओं की संख्या घटते जायेगी और लडकों की संख्या बढते जायेगी, एक समय आयेगा जब चारों ओर लडके ही लडके नजर आयेंगे और लडकियां कुछेक ही रहेंगी .... जरा सोचो तब क्या होगा .... और यदि स्त्रियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाये सिर्फ़ पुरुष ही पुरुष बच जायें तब जरा सोचो क्या होगा !!! ..... कल्पना करना ही भयानक व असहजता की अनुभूति पैदा कर रहा है अगर ये सच हो जाये तब ...... उफ़...उफ़्फ़ ..... इसलिये लडका या लडकी के जन्म की प्रक्रिया में छेडछाड, भेदभाव, होशियारी सर्वथा अनुचित व अव्यवहारिक है और रहेगा।

... स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं और रहेंगे, किसी एक के बिना समाज व मानव जीवन की कल्पना करना मूर्खता के अलावा कुछ भी नही है, बुद्धिमानी इसी में है दोनों कदम-से-कदम व कंधे-से-कंधा मिलाकर एक-दूसरे के हमसफ़र बनें और प्रेम बांटते चलें।

Thursday, September 9, 2010

कविता : मदिरा

वह सामने आकर,
मुझको लुभा गई
फ़िर धीरे से,
मुझमें समा गई
रोज सोचता हूं,
छोड दूं उसको
शाम हुई , उसकी याद
फ़िर से आ गई

दूर भागा,
तो सामने आ गई
मैं पूछता हूं ,
क्यों छोडती नहीं मुझको
वह "बेजुबां" होकर भी,
मुझसे लड गई
क्यूं भागता है,
डर कर मुझसे
तू सदा पीते आया है मुझे
क्या आज मै तुझे पी जाऊंगी !

ये माना,
तेरे इस "सितमगर" शहर में
हर कदम पर
"बेवफ़ा" बसते हैं
डर मत
मै बेवफ़ा नहीं - मै बेवफ़ा नहीं।

Tuesday, September 7, 2010

मैकदा


क्यूँ खफा हो, अब वफा की आस में
हम बावफा से, बेवफा अब हो गये हैं।

.................................

छोड दूँ मैं मैकदा, क्यों सोचते हो
कौन है बाहर खडा, जो थाम लेगा।

Saturday, September 4, 2010

परिवर्तन

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"

चहूं ओर फ़ैले होंगे पुष्प
और मंद-मंद पुष्पों की खुशबू
उमड रहे होंगे भंवरे
तितलियां भी होंगी
और होगी चिडियों की चूं-चूं
चहूं ओर फ़ैली होगी
रंगों की बौछार

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"

न कोई होगा हिन्दु-मुस्लिम
न होगा कोई सिक्ख-ईसाई
सब के मन "मंदिर" होंगे
और सब होंगे "राम-रहीम"

न कोई होगा भेद-भाव
न होगी कोई जात-पात
सब का धर्म, कर्म होगा
और सब होंगे "कर्मवीर"

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"।

Thursday, September 2, 2010

शेर

तू तन्हा क्यों समझता है खुद को ‘उदय’
हम जानते हैं कारवाँ तेरे साथ चलता है।

..............................................

रोज आते हो, चले जाते हो मुझको देखकर
क्या तमन्ना है जहन में, क्यूँ बयां करते नहीं।

Wednesday, September 1, 2010

भारत की पहचान

एक छोटी सी बात अलग है
भारत की पहचान अलग है

कुंभ का स्नान अलग है
हिमालय की शान अलग है
फ़ौजों का आगाज अलग है
रिश्तों में मिठास अलग है

एक छोटी सी ............

होली की गुलाल अलग है
दीवाली की रात अलग है
दोस्ती का मान अलग है
दुश्मनी की घात अलग है

एक छोटी सी ............

इंसा का ईमान अलग है
नारी का स्वाभिमान अलग है
सर्व-धर्म की बात अलग है
भारत की पहचान अलग है

एक छोटी सी बात अलग है
भारत की पहचान अलग है ।

Tuesday, August 31, 2010

अंगप्रदर्शन .... इतना विरोध क्यों !!!

आये दिन सुनने व देखने को मिलता है कि फ़ला महिला संघठन ने, फ़ला पार्टी ने फ़िल्मों में हो रहे अश्लील व भद्दे प्रदर्शन का जमकर विरोध किया .... घंटों नारेबाजी चली ... फ़िल्म का प्रदर्शन नहीं होने दिया ...पोस्टर फ़ाड दिये गये ... फ़ला शहर, फ़ला राज्य में फ़िल्म रिलीज नहीं होने देंगे ... बगैरह ...बगैरह ....लेकिन क्या फ़र्क पडता है कुछ समय की "चिल्ल-पों" ...फ़िर वही, जो होता आया है, जो हो रहा है ... फ़िल्म रिलीज... हाऊसफ़ुल ... ब्लैक टिकिट की मारा-मारी .... फ़िल्म ने आय के नये कीर्तिमान बनाये ... सुपर-डुपर हिट ... करीना ने क्या काम किया ... क्या सीन है ... मजा आ गया ...

.... अब क्या कहें फ़िल्म तो फ़िल्म हैं बनते आ रही हैं बनते रहेंगी ... अंगप्रदर्शन ...चलता है थोडा-बहुत तो हर फ़िल्म में रहता है ये कोई आज की बात नहीं है ३०-४० साल पहले की फ़िल्मों मे भी देखने मिल जाता है ... आज करीना... कैटरीना ...सुश्मिता ...प्रियंका ... ऎसा कुछ अलग नहीं कर रहीं जो मुमताज ...बैजयंती माला ...सायरा बानो ने नहीं किया ... ये बात और है कि पहले सब "स्मूथली" चलता था पर अब पहले विरोध बाद में सब "टांय-टांय" फ़िस्स ...विरोध भी इसलिये कि विरोध करना है ....

...खैर छोडो ये सब तो चलते रहता है ...छोडो, क्यों छोडो ... अरे भाई, जब फ़िल्म बनाने वाले, फ़िल्म में काम करने वाले, फ़िल्म देखने वाले ... सब खुश, तो बेवजह का विरोध क्यों ... चलो ये सब तो ठीक है फ़िल्मों में विभत्स हत्याएं, दिलदहला देने वाले बलात्कार के द्रष्य, अंग-भंग के क्रुरतापूर्ण द्रष्य, अजीबो-गरीब लूट-डकै्ती के कारनामे, बच्चों का क्रुरतापूर्ण शोषण, तरह तरह के आपराधिक फ़ार्मूले दिखाये जाते हैं उनका विरोध क्यों नहीं ...क्या इन सीन/द्रष्यों को देखकर रोंगटे खडे नहीं होते! क्या इस तरह के फ़िल्मांकन को देखकर मन विचलित नहीं होता ... क्या फ़िल्मों में सिर्फ़ अंगप्रदर्शन के द्रष्य ही दिखाई देते हैं !! ...ठीक है विरोध जायज है पर अंगप्रदर्शन का ही इतना विरोध क्यों, किसलिये !!!

Sunday, August 29, 2010

सत्य-अहिंसा

सत्य-अहिंसा के पथ पर
आगे बढने से डरता हूं
कठिन मार्ग है मंजिल तक
रुक जाने से डरता हूं

हिंसा रूपी इस मंजर में
कदम पटक कर चलता हूं
कदमों की आहट से
हिंसा को डराते चलता हूं

झूठों की इस बस्ती में
फ़ंस जाने से डरता हूं
'सत्य' न झूठा पड जाये
इसलिये "कलम" दिखाते चलता हूं

सत्य-अहिंसा के पथ पर
आगे बढने ......................।

Friday, August 27, 2010

शेर

कभी हम चाहते कुछ हैं, हो कुछ और जाता है
जतन की भूख है ऎसी, अमन को भूल जाते हैं ।

...................................................

तुम्हे फुर्सत-ही-फुर्सत है, ‘आदाब-ए-मोहब्बत’ की
हमें फुर्सत नहीं यारा, ‘सलाम-ए-मोहब्बत’ की ।

Thursday, August 26, 2010

पुलिस का डंडा

पुलिस का डंडा कहां है
पुलिस वाले तो निहत्थे खडे हैं
अब कोई डरे, क्यों डरे
निहत्थों से भला कोई डरता है क्या !

पुरानी कहावत है -
जिसकी लाठी उसकी भैंस
जब डंडा नहीं तो काहे की भैंस

मैंने पूछा एक पुलिस वाले से
क्यों भाई आपका डंडा कहां है ?
वह मुस्कुरा कर बोला, साहब जी
डंडा "अलादीन" का "जिन्न" ले गया

तो रगडो "चिराग" को
वह बोला - चिराग बडे लोगों के पास है
उनसे कहो रगडने के लिये
उनसे कहने की जुर्रत किसकी है !!!

अगर कोई कह भी दे
तो उनके हाथ खाली कहां हैं
दोनों हाथों में "कुर्सी"
और पैरों में "चिराग" उल्टा पडा है

उन्हें डंडे की कहां, अपनी कुर्सी की पडी है
मतलब अब निहत्थे ही रहोगे
निहत्थे रहकर
कानून और जनता की रक्षा कैसे करोगे

पुलिस वाला बोला - साहब जी
खेत में खडा "बिजूका" भी तो निहत्था खडा है
सदियों से खेत की रक्षा करता रहा है
हम भी "बिजूका" बन कर रक्षा करेंगे

जो डरेगा उसे डरा देंगे
जो नहीं डरा उसे .......

हमारा क्या होगा
ज्यादा से ज्यादा कोई "भैंसनुमा" मानव
धक्का मार कर गिरा देगा
कानून और जनता की धज्जियां उडा देगा

मतलब अब कानून और जनता की खैर नहीं
नहीं साहब जी
कानून, जनता और पुलिस तीनों की खैर नहीं ।

Saturday, August 21, 2010

.....मैं अच्छा लेखक हूं !!!!

मैं अच्छा लेखक हूं .... क्यों हूं ..... मैं बहुत अच्छा लिख रहा हूं , मेरे अच्छा लिखने का अगर कोई मापदण्ड है तो वो है "टिप्पणियां" ........ अरे भाई "टिप्पणियां" तब ही कोई मारेगा जब मैं अच्छा लिखूंगा, नहीं लिखूंगा तो कोई भला क्यों टिप्पणी करेगा .... बिल्कुल सही कहा ... अच्छे लिखने का मापदण्ड तो निश्चिततौर पर "टिप्पणियां" ही हैं जब "टिप्पणियां" मिल गईं तो स्वभाविकतौर पर अच्छा ही लिखा गया है , नहीं तो किसी को क्या पडी थी "टिप्पणियां" मारने की, .... किसी को खुजली तो नहीं हुई है जो बेवजह ही "टिप्पणियां" ठोक देगा .... अब ५०, १००, १५०, "टिप्पणियां" मिल रही हैं इसका सीधा-सीधा मतलब यही है कि .... मैं अच्छा लेखक हूं !!!!

...... इसके अलाबा एक और मापदण्ड है अच्छा लिखने का ... वो क्या है ? ... अरे भाई आजकल "हवाले" का भी बोलबाला है ..... अब "हवाले" की दौड में हर कोई तो आ नहीं सकता, जिसकी "सैटिंग" होगी वह ही "हवाले" की दौड में दौड पायेगा ... "हवाले" की दौड में भी "सैटिंग" होती है क्या !!!! .... बिल्कुल होती है!!!!!!! ... क्या "हम-तुम" हवाले कर सकते हैं, शायद नहीं ... वो इसलिये कि "हवाले" हर किसी की बस की बात नहीं है !!! .... चलो कोई बात नहीं "टिप्पणियां" और "हवाले" की "सैटिंग" को दूर से ही "राम-राम" कर लेते हैं ........ कोशिश यही कर लेते हैं कि कुछ अच्छा ही लिख लेते हैं !!!!!!!!!!!

Wednesday, August 18, 2010

धर्म - अधर्म क्या है !

धर्म - अधर्म क्या है ! मानव धर्म व मानवीय द्रष्ट्रिकोण से देखें तो धर्म व अधर्म की बेहद संक्षिप्त परिभाषा है किन्तु परिणाम बेहद विस्तृत हैं, सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य धर्म हैं तथा दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य अधर्म हैं।

सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को शांति प्रदान करते हैं, परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक अथवा सामान्य प्राप्त हो सकते हैं किन्तु कार्य संपादन के दौरान चारों ओर शांति व सौहार्द्र का वातावरण बना रहता है।

दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को विचलित रखते हैं, कार्य आरंभ से लेकर समापन तक मन में व्याकुलता व अनिश्चितता बनी रहती है परिणाम सकारात्मक होने के पश्चात भी मन में संतुष्टि का अभाव रहता है।

जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Monday, August 16, 2010

शेर : मंजिलें

पीछे पलट के देखने की फुर्सत कहाँ हमें
कदम-दर-कदम हैं मंजिलें बडी ।

........................................

हम जानते हैं तुम, मर कर न मर सके
हम जीते तो हैं, पर जिंदा नही हैं।

Saturday, August 14, 2010

कर्म

मैं
निर्माण करूंगा
भाग्य का

मेरे विचार
कर्म का रूप लेंगे
कर्म का प्रत्येक अंश
मेरे भाग्य की
आधारशिला होगी

हर पल
मेरे विचार - मेरे कर्म
ही मेरे भाग्य बनेंगे
और मैं ................. ।

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई शुभकामनाएं

Thursday, August 12, 2010

"भाऊ का इंटरनेशनल सर्कस"

चलिये आज चर्चा करते हैं इंटरनेट जगत के विश्व प्रसिद्ध सर्कसकार "भाऊ" .... भाऊ एक ऎसा नाम जिसे इंटरनेट की दुनिया के बच्चे बच्चे , महिला-पुरुष सभी जानते हैं ... उनकी कहानियां मुंहजुबानी कुछ महानुभाव व महापुरुष टाईप के बुद्धिजीवियों के पास सुनने मिल जायेंगी ...

... भाऊ का सर्कस ... एक हंसीला-जोशीला सर्कस है जो जबरदस्त कामेडी है ... इस सर्कस के मुख्य किरदार ... सल्पना मैडम, सर्मीला मैडम, भालित बाबू, बगैरह ... और स्वंय जोशीले-हटीले भाऊ ... इस सर्कस पर अक्सर बर्फ़ के गोले, गुपचुप के ढेले, अंगूर के रस, अस्पताली कारनामें, भंग के गोले, जंतर-मंतर के अजब-गजब कारनामें पेश किये जाते हैं ये कारनामें भी गोल्डन होते हैं यहां से करोडों रुपये जीते जा सकते हैं क्योंकि यहां सब गोल्डन ही गोल्डन है ...

... इस सर्कस का मुख्य आकर्षक आईटम है ... चुटकुलों का जंतर-मंतर ... जी हां ... यहां आये-दिन चुटकुले पटक दिये जाते हैं यह एक जंतर-मंतर नुमा खेल है ... इसमें कुछ बुद्धीजन घुस जाते हैं जो सफ़लतापूर्वक निकल आते हैं उन्हें पुरुष्कार स्वरूप एक "छडी" प्रदाय की जाती है और उन्हें आजीवन सर्कस का सदस्य बना लिया जाता है फ़िर वे भी सर्कस के हिस्से बन जाते हैं और किसी न किसी आईटम कार्यक्रम में छडी हिलाते देखे जाते हैं ... सभी "छडी" धारकों के फ़ोटो सर्कस के गेट पर व संपूर्ण मेले में लगाये जाते हैं ... ताकी कुछ और झमूरे आकर्षित होकर पहुंचे ...

... फ़िलहाल तो भाऊ का इंटरनेशनल सर्कस सफ़लता पूर्वक जारी है ... नई ऊंचाईयों को छू रहा है ... हमारी भी शुभकामनाएं हैं कि भाऊ अपने सर्कस में कुछ नये झमूरे और शामिल करें तथा सर्मीला मैडम का एक आईटम सांग प्रत्येक शो मैं अवश्य रखें ... साथ ही साथ भालित बाबू को भी मुख्य किरदार में पेश करें ... सभी जंतर-मंतर शो के विजेताओं को सर्कस के ओपनिंग शो में छडी घुमाते हुये अवश्य दिखाएँ ... हमारी शुभकामनाएं ... जय हो भाऊ सर्कस की ... !!!!
(निर्मल हास्य)

Tuesday, August 10, 2010

कातिल अदाएँ

पैसा बडा है, ईमान बदल दे
पर इतना भी नहीं, कि कुदरत को बदल दे।

...............................

नही है खौफ बस्ती में, तेरी खुबसूरती का
खौफ है तो, तेरी कातिल अदाएँ हैं ।

Sunday, August 8, 2010

क्या हम मन के गुलाम हैं !

मनुष्य का मन जिसकी शक्ति अपार है, मन की मंथन क्रिया से ही आधुनिक अविष्कार हुए हैं और होते ही जा रहे हैं, मन कभी इधर तो कभी उधर, कभी इसका तो कभी उसका, मन हर पल चंचल स्वभाव से ओत-प्रोत रहता है, पल में खुश तो पल में नाराज।

कहने को तो हम यह ही कहते हैं कि जो हम चाहते हैं वह ही मन करता है, पर हम कितने सही हैं, कहीं ऎसा तो नहीं ये हमारा भ्रम है कि मन हमारी मर्जी के आदेश पर काम करता है, कहीं ऎसा तो नहीं हम स्वयं ही मन के गुलाम हैं जो मन कहता है वह करते हैं जो उसे पसंद है वह करने को आतुर रहते हैं।

यह मनन करने योग्य है, सुबह से उठकर रात के सोने तक क्या हम वह ही करते हैं जो मन कहता जाता है, चाय, दूध, नाश्ता, पान, गुटका, जूस, मदिरा, वेज, नानवेज, प्यार, सेक्स, दोस्ती, दुश्मनी, चाहत, नफ़रत ... संभवत: वह सब करते हैं जो मन कहता जाता है।

जरा आप विचार करें, कितने बार ऎसा हुआ है कि आपने कुछ कहा हो और मन ने किया हो, शायद बहुत ही कम या ऎसा हुआ ही न हो, जरा बैठ के ठंठे दिमाग से सोचिये ... कहीं आप मन के गुलाम तो नहीं हैं !

जय गुरुदेव

( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Friday, August 6, 2010

"मुफ़्त की नसीहतें"

तीन दोस्त बहुत दिनों बाद मिले ... मिलकर खुश हुये ... जिंदगी के सफ़र पर चर्चा शुरु ... क्या कर रहा है ... क्या हालचाल है ... सफ़र कुछ ऎसा था कि दो अमीर हो गये थे धन-दौलत बना ली थी तथा एक अपनी सामान्य जीवन शैली में ही गुजर-बसर कर रहा था ... उसकी भी बजह थी वह कहीं किसी के सामने झुका नहीं ... नतीजा भी वही हुआ जो अक्सर होते आया है, जो झुकते नहीं अपने ईमान पर अडिग होते हैं, जी-हजूरी व दण्डवत होने की परंपरा से दूर रहते हैं उन्हें कहीं-न-कहीं जिंदगी की "दौलती दुनिया" में पिछडना ही पडता है ...

... खैर ये कोई सुनने-सुनाने वाली बातें नहीं है लगभग सब जानते हैं .... हुआ ये कि दोनो सफ़ल दोस्त मिलकर तीसरे पर पिल पडे .... देख यार ये ईमानदारी व सत्यवादी परंपरा किताबों में ही अच्छी लगती है .... थोडा झुक कर, चापलूसी कर, समय-बेसमय पैर छूने में बुराई ही क्या है ... अपन जिनके पैर छूते हैं वे किन्हीं दूसरों के पैर छू-छू कर चल रहे होते हैं ये परंपरा सदियों से चली आ रही है ... चल छोड, ये बता नुक्सान किसका हो रहा है ... तेरा न, उनका क्या बिगड रहा है ... वो कहावत है "तरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू तरबूजे पर गिर जाये कटना तो तरबूजे को ही पडता है" ...

... देख यार अपने बीवी-बच्चों के लिये, शान-सौकत के लिये थोडा झुकने में बुराई ही क्या है ... देख आज हमने पचास-पचास लाख का बंगला बना लिया, दो-दो एयरकंडिशन गाडियां हैं बच्चों के भविष्य के लिये पच्चीस-पच्चीस लाख बैंक में जमा कर दिये ...और तू ... आज भी वहीं का वहीं है ... खैर छोडो बहुत दिनों बाद मिले हैं कुछ "इन्जाय" कर लेते हैं....

... सुनो यार बात जब निकल ही गई है तो मेरी भी सुन लो जिस काम को तुम लोग परंपरा कह रहे हो अर्थात किसी के भी पैर छू लेना, जी-हजूरी में उनके कुत्ते को नहाने बैठ जाना, चाय खत्म होने पर हाथ बढाकर कप ले लेना, और तो और जूते ऊठाकर दे देना बगैरह बगैरह .... आजकल लोग बने रहने के लिये किन किन मर्यादाओं को पार कर रहे हैं ये बताने की जरुरत नहीं समझता, तुम लोग भली-भांति जानते हो और कर भी रहे हो .... रही बात मेरी ... तो मैं अपनी जगह खुश हूं ... जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लोगे !

Thursday, August 5, 2010

भिखारी

अपने देश में भिखारियों की संख्या दिन-व-दिन बढते जा रही है गली-मोहल्लों, चौक-चौराहों, गांवों-शहरों, धार्मिक स्थलों, लगभग हर जगह पर भिखारी घूमते-फ़िरते दिख जाते हैं और तो और रेल गाडियों में भी इनका बोलबाला है हर गाडी, हर डिब्बे में भिखारी दमक जाते हैं और चालू ....दे दाता के नाम.... भगवान भला करे .... ।

मूल समस्या ये है कि जब आम आदमी प्लेटफ़ार्म पर बिना टिकट जाने से डरता है तो ये भिखारी ट्रेन में कैसे घुस जाते हैं और अपने कारनामों को कैसे अंजाम देने लगते हैं ...... ट्रेन में अगर कोई बिना टिकट चढ जाये तो टी टी ई अथवा रेल्बे पुलिस की "गिद्ध निगाह" से बच नहीं सकता फ़िर ये भिखारी खुलेआम ट्रेनों में कैसे भीख मांग रहे हैं .... क्या रेल प्रशासन व प्रबंधन की मिलीभगत से ये कारनामे हो रहे हैं ? ..... अगर नहीं, तो इन्हें ट्रेन में चढने ही क्यों दिया जाता है !!!

अपने देश में कार्यरत ढेरों "एन जी ओ" क्या इतना भी नहीं कर सकते कि चंद बेसहारा व असहाय लोगों को दो वक्त की "रोटी" व "झोपडी" मुहईया करा सकें !!!

Sunday, August 1, 2010

अर्जुन व कर्ण ... बलशाली कौन !!!

चलो आज एक सुनी-सुनाई प्रस्तुत है : -

महाभारत काल में रणभूमि में कौरव व पाण्डवों के बीच युद्द चल रहा था .... आमने-सामने अर्जुन व कर्ण ... अर्जुन व कर्ण जब एक-दूसरे पर वाण चलाते तो वार तो कट जा रहा था ... पर अर्जुन के वार से कर्ण का रथ चार कदम पीछे चला जाता था और कर्ण के वार से अर्जुन का रथ दो कदम पीछे जाता था ... इसी बात पर विश्राम के समय में अर्जुन इठलाते हुये श्रीकृष्ण से कहते हैं कि देखिये आप कहते हैं कि कर्ण मुझसे भी ज्यादा बल शाली है, देखा आपने आज मेरे आक्रमण से कर्ण का रथ चार कदम पीछे और उसके आक्रमण पर अपना रथ मात्र दो कदम पीछे जा रहा था यह प्रमाणित हो रहा है कि मैं कर्ण से ज्यादा बलशाली हूं ... श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुये कहते हैं ... हे वत्स अर्जुन ये तुम्हारा अहं बोल रहा है मैं अब भी कहता हूं कर्ण ज्यादा बलशाली है वो इसलिये जब तुम्हारे रथ पर हनुमान जी का ध्वजारूपी जो झंडा लगा है उस पर उनका आशिर्वाद है और साक्षात मैं तुम्हारा सारथी हूं फ़िर भी तुम्हारा रथ पीछे चला जा रहा है इससे अब तुम स्वयं अंदाजा लगा सकते हो कि कौन ज्यादा बलशाली है .... यह तो अधर्म के विरुद्ध धर्म की लडाई है तुम तो अपना कर्म जारी रखो ..... !!!!

Friday, July 30, 2010

ब्लाग-दुनिया !

झूमा-झटकी
पटका-पटकी
गुत्थम-गुत्था
खेल-कबड्डी

मौज-मस्ती
ढोल-नगाडे
गिल्ली-डंडा
गली-मोहल्ले

चौके-छक्के
गुगली-यार्कर
टेस्ट-वन्डे
टवेंटी-टवेंटी

नौंक-झौंक
टीका-टिप्पणी
नामी-बेनामी
चिट्ठे-चर्चे

गीत-गजल
कविता-कहानी
हास्य-व्यंग्य
ब्लाग-दुनिया !!

Thursday, July 29, 2010

शेर

बडा मुश्किल है जीना, यारों के चलन में
यारों से, रकीबों के रिवाज अच्छे हैं ।
......................................................................

मिटटी
के खिलौने हैं हम सब, मिटटी में ही रचते-बसते हैं

जिस दिन टूट-के बिखरेंगे, मिटटी में ही मिल जायेंगे ।

Tuesday, July 27, 2010

"महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे !

भभक रहे भ्रष्टाचारी शोलों को
ठंडा करने
क्या अब इस धरती पर
"मंगल पाण्डे" जन्म नहीं लेंगे

बेलगाम प्रशासन पर
बम फ़ेंकने
क्या अब इस धरती पर
"भगत सिंह" जन्म नहीं लेंगे

दुष्ट-पापियों से लडने को
एक नई सेना बनाने
क्या अब इस धरती पर
"सुभाष चन्द्र" जन्म नहीं लेंगे

एक नई आजादी के खातिर
सत्याग्रह का अलख जगाने
क्या अब इस धरती पर
"महात्मा गांधी" जन्म नहीं लेंगे !!!

प्रार्थना

प्रार्थना से तात्पर्य किसी आवश्यकता की प्राप्ति हेतु अनुरोध करना है, यह अनुरोध प्रत्येक मनुष्य करता है जब कभी भी उसे कुछ विशेष पाने की चाह होती है वह अपने अपने ढंग से अनुरोध अवश्य करता है।

जब किसी मनुष्य को यह प्रतीत होता है कि अमुक सामने वाला व्यक्ति उसके अनुरोध की पूर्ति कर सकता है तब वह उस व्यक्ति से आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रत्यक्ष रूप से अनुरोध कर लेता है किन्तु जब उसे यह जानकारी नहीं होती कि उसकी आवश्यकता की पूर्ति करना किसके हाथ में है तब वह ईश्वर से प्रार्थना करता है।

ईश्वर, ईष्ट देव, गुरु, कुदरती शक्ति प्राप्त किसी व्यक्तित्व के समक्ष जब इंसान प्रार्थना करता है तब उसे इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि प्रार्थना नाम,यश,कीर्ति,सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिये होना चाहिये, कि मन में बसे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये।

संभव है ईश्वर ने आपके लिये, आपके द्वारा प्रार्थना में चाहे गए "विशेष उद्देश्य" से हटकर "कुछ और ही लक्ष्य" निर्धारित कर रखा हो, ऎसी परिस्थिति में प्रार्थना में चाहे गए लक्ष्य तथा ईश्वर द्वारा आपके लिये निर्धारित लक्ष्य दोनों समय-बेसमय आपकी मन: स्थिति को असमंजस्य में डालने का प्रयत्न करेंगे।

इसलिये मेरा संदेश मात्र इतना ही है कि जब भी आप प्रार्थना करें नाम, यश, कीर्ति, सुख - समृद्धि प्राप्ति के लिये ही करें।
जय गुरुदेव

( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Sunday, July 25, 2010

'सत्यामृत'

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' झर रहा है

चलते-चलते न रुकें
बढते-बढते, बढते रहें
हम भी पहुंचे वहां
जहां 'सत्यामृत' झर रहा है

एक बूंद पाकर
हम भी
अजर-अमर हो
"सत्यामृत" बन जाएं

आओ चलें, वहां - जहां
'सत्यामृत' .............।

Friday, July 23, 2010

जात-पात का "ढोंग-धतूरा"

जात-पात का "ढोंग-धतूरा" आज भी कुछ लोगों की नसों में खून की तरह दौड रहा है .... आज भी कुछ लोग जात-पात की "डफ़ली-मंजीरे" बजाने से बाज नहीं रहे हैं..... लेकिन वही लोग जब शहर जाते हैं तब होटल में चाय-भजिया का आनंद लेते समय नहीं पूंछ्ते - किसने बनाया, कौन परोस रहा है ....... फ़िर चाहे मुर्गा-मछली गटा-गट .... दारू के अड्डे पे तो सब भाई भाई .... जब बाहर स्त्री समागम का अवसर मिले तो कोई जात-धर्म नहीं!!

..... फ़िर क्यों कुछ लोग गांव में अथवा मोहल्ले में ही अपनी बडी जात होने का ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आते क्या छोटी जात के लोग गांव में ही बसते हैं या फ़िर गांव पहुंचते ही लोगों की जात बडी हो जाती है .... तभी तो कुछ लोग गांव में किसी-किसी के घर का पानी नहीं पीते .... किसी-किसी के घर उठते-बैठते नहीं .... कुएं पर ऊंची जात - नीची जात के पनघट ..... अजब रश्में-गजब रिवाज !!

..... गांव में उनका अदब हो .... ऊंची जात का होने के नाते मान-सम्मान हो ... क्यों,किसलिये .... क्या ऊंची जात के हैं सिर्फ़ इसलिये ही सम्मान के पात्र हैं ... या फ़िरमान-सम्मान का कोई दायरा होना चाहिये .... क्या मान-सम्मान के लिये सतकर्म, उम्र, व्यवहार का मापदंड नहीं होना चाहिये .... सच तो यही है कि पढे-लिखे समाज में, शहरोंमें, विकासशील राष्ट्रों में मान-सम्मान का दायरा जातिगत होकर निसंदेह व्यवहारिकहै .... आज हमें भी अपनी सोच व्यवहार में बदलाव लाना ही पडेगा .... जात-पात केप्रपंचों से दूर होना पडेगा ... नहीं तो हमारे शिक्षित विकसित होने का क्या औचित्य है !!!

Thursday, July 22, 2010

चिट्ठा चर्चा .... "गुटर-गूं" ... फर्जी वाड़ा का बोलबाला !!!!

दो ब्लागर टेलीफ़ोन पर .... भैय्या प्रणाम ... हां अनुज बोलो ... भैय्या नई पोस्ट लगाया हूं "चर्चा" में ले लेना .... हां बिलकुल हो जायेगा आप निश्चिंत रहें ... हां जरा देखना आजकल कुछ लोग "चर्चा" के पीछे पड गये हैं चर्चा पर सबालिया निशान लगा रहे हैं, पता नहीं क्यों लोग अपने अपने में मस्त नहीं रहते, बेवजह ही हमारी "चर्चा" के पीछे पड रहे हैं ... भैय्या, लोग पीछे इसलिये पडने लगें हैं कि वो अपने आप को एक अच्छा लेखक समझ रहे हैं, पर वे ये भूल जाते हैं कि अच्छा लेखक वो होता है जो "छपने-छपाने" का माद्दा रखता है, जो छपता है वही तो लोग पडते हैं, लोग इस "कडुवे सच" को समझते क्यों नहीं हैं .... ठीक कह रहे हो अनुज, तुम्हारी बातों में दम है फ़िर भी जो लोग उछल रहे हैं उनको तो एक न एक दिन सबक सिखाना ही पडेगा .... भैय्या आप निश्चिंत रहें उनका भी बंठाधार लगाने की योजना बना रहे हैं, ठीक है भैय्या प्रणाम .... खुश रहो अनुज ... !

... तीन-चार दिन बाद पुन: फ़ोन ..... अनुज .... हां भैय्या प्रणाम ..... यार कुछ लिखो तुम्हारा ब्लाग खाली पडा है मुझे "चर्चा" लगानी है .... हां भैय्या वही सोच रहा हूं क्या लिखूं कुछ विषय समझ में नही आ रहा है .... अरे यार एक काम करो आजकल सानिया शादी, आईपीएल, नक्सलवाद पर खूब शोर मचा हुआ है किसी एक पर आठ-दस लाईन लिख कर एक-दो फ़ोटो लगा देना पोस्ट बन जायेगी ..... सही कहा भैय्या ये तो मेरे दिमाग में सूझ ही नहीं रहा था आज ही लगा देता हूं .... देर मत करना आज शाम तक ही लगा देना, रात में मुझे ड्राफ़्टिंग करना है कल सुबह ही "चर्चा" की पोस्ट लगाना है ... हां भैय्या हो जायेगा ... प्रणाम भैय्या ... खुश रहो ... !!

... दूसरे दिन "चर्चा" पर पोस्ट जारी .... पन्द्रह-बीस मिनट में ही "टिप्पणियों" की भरमार .... बढिया ... बहुत सुन्दर .... बहुत खूब ... सार्थक चर्चा ... समसामयिक पोस्टों की सारगर्भित चर्चा ... आभार .... बधाई ... धन्यवाद .... बगैरह बगैरह .... पुन: टेलीफ़ोन .... भैय्या आपने तो कमाल कर दिया क्या लिखते हो, क्या "चर्चा" का अंदाज है, छा गये भैय्या, आशिर्वाद बनाये रखना .... अरे खुश रहो अनुज ..... प्रणाम भैय्या ..... !!!!!

Wednesday, July 21, 2010

शेर बोलते हैं !

इस तरह मुँह फेर कर जाना तेरा
देखना एक दिन तुझे तडफायेगा ।

.....................................

फूलों में जबां तुम हो, खुशबू पे फिदा हम हैं
अकेले तुम तो क्या तुम हो, अकेले हम तो क्या हम हैं।

Tuesday, July 20, 2010

.... ब्लागर एक "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" है !

ब्लागजगत में जो लेखन कार्य युद्ध-स्तर पर चल रहा है लेख, कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य, कार्टून, चर्चा-परिचर्चा, गुफ़्त-गूं, क्रिया-प्रतिक्रिया, यह सभी समाचार के हिस्से हैं इन सभी के समावेश से "समाचार पत्र व पत्रिकाएं" साकार रूप लेती हैं .... "ब्लागजत" पर लेखन को मात्र शौक-पूर्ति नहीं कहा जा सकता यह एक "अंतर्राष्टिय मंच" है .... "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" है ....

... यह सर्वविदित सत्य है कि आये-दिन ब्लागजगत के लेख इत्यादि "प्रिंट मीडिया" में समावेश हो रहे हैं कभी-कभी तो ब्लागिंग "इलेक्ट्रानिक मीडिया" में सुर्खियों का विषय रहा है .... इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में ब्लागजगत "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का मजबूत स्तंभ होगा .... इसका खुद का अपना एक "संघठन" होगा और सभी ब्लागर "सदस्य" होंगे, जो "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" के नाम से जाने जायेंगे ...

..... मेरा मानना तो ये है कि अभी से ब्लागजगत के नामचीन ब्लागर मिलकर इस दिशा में सार्थक पहल करते हुये साकार रूप देने के लिये रूप-रेखा तैयार करें .... क्यॊंकि देरे-सबेर यह कार्य तो होना ही है फ़िर आज से क्यॊं नहीं ... "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का एक "डिजाईन" तैयार होते ही, बुनियादि कार्य में हर एक "ब्लागर" अपनी सारी "ऊर्जा" लगा देगा .... ब्लागजत में स्थापित मेरे साथियों कदम बढाओ "अंतर्राष्टिय पत्रकारिता" का ढांचा तैयार करो ... इमारत तो बना ही लेंगे .... आज मैं इस मंच से एक ऎसा "कडुवा सच" बयां कर रहा हूं जो सिर्फ़ "कडुवा" ही नहीं वरन "मीठा" भी है .... ब्लागर एक "अंतर्राष्ट्रिय पत्रकार" है !

Monday, July 19, 2010

टाप ब्लागर

सुबह-सुबह फ़ोन पर एक "ब्लागर मित्र" ".... भईया ये "टाप ब्लागर" क्या होता है ... "टाप ब्लागर" बनने में कोई बुराई तो नही है .... अरे यार तू भी सुबह-सुबह पकाने बैठ गया कितने दिन से "ब्लागिंग" कर रहा है फ़िर भी नहीं पता ये "टाप ब्लागर" क्या होते हैं .... बात दरअसल ये है सभी "ब्लागों" का लेखा-जोखा "चिट्ठाजगत" व "ब्लागवाणी" में रखा जाता है तात्पर्य ये है किसने कितनी पोस्ट लिखीं, कितने समय के अंतराल में लिखीं, कितने लोगों ने पढीं, कितने लोगों ने टिप्पणी कीं, बगैरह - बगैरह ...।

.... हां एक बात और है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है वो है "हवाले" ....भईया अब ये "हवाले-घोटाले" भी यहां सक्रिय हैं .... अरे यार तू चिंतित मत हो "हवाले" एक "कला" है .... "हुनर" है ... ये बहुत ही नायाब औजार है जो किसी भी "ब्लाग" को "तराश" कर आठ-दस दिनों मे ही "चमचमाते हीरे" की तरह "टाप ब्लागर" की दौड में शामिल करा देता है .... और तो और अगर दो-चार "ब्लागर" मिलकर अर्थात "टीम" बना कर "हवाले" करने लगें तो फ़िर आपको "टाप ब्लागर" बनने से कोई रोक ही नहीं सकता ।

.... भईया मुझे भी "टाप ब्लागर" बनने की इच्छा हो रही है अभी-अभी मैने एक-दो "ब्लाग" देखे हैं जो "जुम्मा-जुम्मा" ही शुरु हुये हैं मुश्किल से पन्द्रह-बीस पोस्ट ही लिखीं गईं हैं वे अभी से "टाप ब्लागर" की सक्रियता सूची में ४००,५०० वे नंबर पर पहुंच गये हैं जबकि मैंने तो कम-से-कम ५० पोस्ट से ज्यादा ही लिखी हैं फ़िर भी उनसे पीछे चल रहा हूं ..... भईया अब आप ही मुझे "टाप ब्लागर"की सूची में ऊपर पहुंचा सकते हो ...... अरे यार तू भी मेरे ही पीछे पड गया, तुझे पता है ये "टाप ब्लागर"और "हवाले" के "यूनिक फ़ंडों" से मैं कितना दूर रहता हूं ... हां अगर तुझे "टाप ब्लागर" बनना ही है तो किसी "ब्लागिंग गुरु" से अविलंब टेलीफ़ोन अथवा ई-मेल से संपर्क कर ले ... वह तुझे निश्चिततौर पर "टाप ब्लागर" बना सकता है ... मेरी भी शुभकामनाएं हैं तू जल्दी ही "टाप ब्लागर" बने।

Sunday, July 18, 2010

प्रेम-वासना

फ़ूल-खुशबू
रात-चांदनी
धरा-अंबर
हम-तुम

गीत -सुहाने
बातें-पुरानीं
नौंक - झौंक
हम-तुम

सर्द-हवाएं
गर्म-फ़िजाएं
तपता - बदन
हम-तुम

गर्म - सांसें
सर्द - बाहें
प्रेम-वासना
हम - तुम !

Saturday, July 17, 2010

मन ही मंदिर है !

मंदिर वह पवित्र स्थल जहां ईश्वर का वास होता है, इस धरा पर अनेक धर्म व अनेक ईश्वर हैं, प्रत्येक धर्म ने अपने अपने ईश्वर के लिये स्थान सुनिश्चित कर रखा है जिसे शाब्दिक भाषा में मंदिर, चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा इत्यादि के नाम से जाना जाता है।

यहां पर मैं उस ईश्वर की चर्चा करना चाहता हूं जो किसी धर्म विशेष का न होकर मानव जाति का है, मेरा सीधा-सीधा तात्पर्य मानव जाति अर्थात समाज से है, वो इसलिये जब मानव जन्म लेता है तब उसका कोई धर्म नही होता, वह जिस धर्म को मानने वाले परिवार में जन्म लेता है वह ही उसका धर्म हो जाता है, यह धर्म उसे विरासत में मिलता है।

यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं सभी धर्म को समान रूप से मानता हूं व सम्मान देता हूं लेकिन मैं मानव धर्म को प्राथमिक तौर पर सर्वोपरी मानता हूं, वो इसलिये तत्कालीन उपजे हालात व परिस्थितियों में मानव धर्म स्वमेव सर्वोपरी हो जाता है, किसी पीडित व दुखियारी की मदद के समय इंसान यह नही सोचता कि वह किस धर्म या संप्रदाय का है, यह ही मानव धर्म है।

मानव, मानव धर्म, मन ही मंदिर ... यहां मानव से तात्पर्य इंसान से, मानव धर्म से तात्पर्य इंसानियत से, मन ही मंदिर से तात्पर्य मानव के मन से है ... मानव का मन ही वह स्थल है जहां ईश्वर सकारात्मक सोच व ऊर्जा के रूप में वास करता है और मनुष्य को सतकर्म का मार्ग प्रशस्त करते हुये जीवन दर्शन कराता है ... मानवीय सोच, ऊर्जा व ईश्वर का वास मन रूपी मंदिर में होता है अर्थात मन ही मंदिर है !
जय गुरुदेव

( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Friday, July 16, 2010

शेर

ताउम्र समेटते रहे दौलती पत्थर
मौत आई तो मिटटी ही काम आई ।

.............................................

वो बन गये थे रहनुमा, मुफ्त में खिलौने बाँटकर
खिलौने जान ले-लेंगें, ये सोचा नहीं था ।

Wednesday, July 14, 2010

समर

एक दिन अपने आप को
'समर' में अकेला पाया
बेरोजगारी-गरीबी-रिश्वतखोरी
भुखमरी-भ्रष्टाचारी-कालाबाजारी
समस्याओं से गिरा पाया

मेरे मन में
भागने का ख्याल आया
भागने की सोचकर
चारों ओर नजर को दौडाया
पर कहीं, रास्ता न नजर आया
किंतु इनकी भूखी-प्यासी
तडफ़ती-बिलखती आंखों को
मैं जरूर भाया

फ़िर मन में भागने का ख्याल
दोबारा नहीं आया
सिर्फ़ इनसे लडने-जूझने
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का हौसला आया

समर में, इनके हाथ मजबूत
आंखें भूखी, इरादे बुलंद
और तरह-तरह के हथियारों से
इन्हें युक्त पाया
और सिर्फ़ एक 'कलम' लिये
इनसे लडता-जूझता पाया

मेरी 'कलम'
और
इन समस्याओं के बीच
समर आज भी जारी है
इन्हें हराकर
'विजेता' बनने का प्रयास जारी है ।

Sunday, July 11, 2010

"बंधुवा मजदूर"

"बंधुवा मजदूर" समाज में व्याप्त एक समस्या है, समस्या इसलिये कि मजदूर अपनी मर्जी का मालिक नहीं रहता वह हालात व परिस्थितियों के भंवर जाल में फ़ंस कर "बंधुवा मजदूर" बन जाता है, होता ये है कि अक्सर गरीब इंसान खेती-किसानी के मौसम के बाद बेरोजगार हो जाता है तब उसके पास खाने-कमाने का कोई जरिया नजर नही आता तो वह कुछ "लेबर सरदारों" के चंगुल में फ़ंस कर मजदूरी करने के लिये प्रदेश से बाहर चला जाता है और वहां उसकी स्थिति "बंधुवा मजदूर" की हो जाती है ।

प्रदेश से बाहर कमाने-खाने जाने वाला मजदूर बंधुवा अर्थात बंधक मजदूर कैसे बन जाता है, होता ये है कि वह जिस "लेबर सरदार" की बातों में आकर बाहर कमाने-खाने जाता है वह "सरदार" उस मजदूर की मजदूरी के बदले में मालिक से छ: माह अथवा साल भर की मजदूरी रकम एडवांस में ले लेता है जिसका कुछ अंश वह मजदूर को दे देता है तथा शेष रकम को वह अपने पास रख लेता है, मजदूर वहां काम करने लगता है और "सरदार" वापस चला जाता है।

होता दर-असल ये है कि "मालिक और लेबर सरदार" के बीच क्या बात हुई तथा क्या लेन-देन हुआ इससे वह मजदूर अंजान रहता है तथा काम करते रहता है, जब वह तीन-चार माह काम करने के पश्चात घर-गांव वापस जाने को कहता है तो मालिक उसे जाने से मना कर देता है और कहता है "... तेरा छ: माह का मजदूरी दे चुका हूं तुझे छ: माह काम करना ही पडेगा ..." ... चूंकि मजदूर के पास वापस जाने के लिये रुपये नहीं होते हैं और उसे उसके तीन-चार माह के काम का मेहनताना नहीं मिला होता है तो वह मजबूर होकर काम जारी रखता है जब तक "लेबर सरदार" नहीं आ जाये तब तक वह "बंधुवा मजदूर" बनकर काम करते रहता है।

Thursday, July 8, 2010

शेरों की चाहत

कुछ इस तरह अंदाजे बयाँ है तेरा
जिधर देखूँ बस तू ही तू आता है नजर।

.........................................

ये सच है तूने आँखों में समुन्दर को बसा रख्खा है
कितना गहरा है ये तो डूबकर ही बता पायेंगे ।

Monday, July 5, 2010

भ्रष्टाचार का बोल-बाला

भ्रष्टाचार का चारों ओर बोल-बाला है और-तो-और लगभग सभी लोग इसमे ओत-प्रोत होकर डूब-डूब कर मजे ले रहे हैं, आलम तो ये है कि इस तरह होड मची हुई है कि कहीं भी कोई छोटा-मोटा भ्रष्टाचार का अवसर दिखाई देता है तो लोग उसे हडपने-गुटकने के लिये टूट पडते हैं, सच तो ये भी है कि हडपने के चक्कर मे कभी-कभी भ्रष्टाचारी आपस में ही टकरा जाते हैं और मामला उछल कर सार्वजनिक हो जाता है और कुछ दिनों तक हो-हल्ला, बबाल बना रहता है .......फ़िर धीरे से यह मसला किसी बडे भ्रष्टाचारी द्वारा "स्मूथली" हजम कर लिया जाता है .... समय के साथ-साथ हो-हल्ला मचाने वाले भी भूल जाते हैं और सिलसिला पुन: चल पडता है !

भ्रष्टाचार की यह स्थिति अब दुबी-छिपी नही है वरन सार्वजनिक हो गई है, लोग खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार कर रहे हैं कारण यह भी है कि अब भ्रष्टाचार को "बुरी नजर" से नही देखा जा रहा वरन ऎसे लोगों की पीठ थप-थपाई जा रही है और उन्हे नये-नये "ताज-ओ-तखत" से सम्मानित किया जा रहा है।

भ्रष्टाचार के प्रमाण ..... क्यों, किसलिये ..... क्या ये दिखाई नही दे रहा कि जब कोई अधिकारी-कर्मचारी नौकरी में भर्ती हुआ था तब वह गांव के छोटे से घर से पैदल चलकर बस में बैठकर आया था फ़िर आज ऎसा क्या हुआ कि वह शहर के सर्वसुविधायुक्त व सुसज्जित आलीशान घर में निवासरत है और अत्याधुनिक गाडियों में घूम रहा है ..... बिलकुल यही हाल नेताओं-मंत्रियों का भी है ...... क्यों, क्या इन लोगों की लाटरियां निकल आई हैं या फ़िर इन्हे कोई गडा खजाना मिल गया है?

भ्रष्टाचार की दास्तां तो कुछ इतनी सुहानी हो गई है कि .... बस मत पूछिये.... जितनी भ्रष्टाचारियों की वेतन नही है उससे कहीं ज्यादा उनके बच्चों की स्कूल फ़ीस है ...फ़िर स्कूल आने-जाने का डेकोरम क्या होगा !!!!!!

Wednesday, June 30, 2010

'छोटी सी ज्वाला'

एक समय था
जल रही थी
ऊंच-नीच की
'छोटी सी ज्वाला'
कुछ लोगों ने
आकर उस पर
जात-पात का
तेल छिडक डाला

भभक-भभक कर
भभक उठी
वह 'छोटी सी ज्वाला'
फ़िर क्या था
कुछ लोगों ने
उसको अपना
हथियार बना डाला

न हो पाई मंद-मंद
वह 'छोटी सी ज्वाला'
अब गांव-गांव, शहर-शहर
हर दिल - हर आंगन में
दहक रही है 'छोटी सी ज्वाला' ।

Sunday, June 27, 2010

सफ़लता का मूल मंत्र

आज मानव जीवन बेहद तेज गति से चलायमान है, प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ़ अपने आप में मशगूल है, उसके आस-पास क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, उचित या अनुचित, इसे जानने का उसके पास समय ही नहीं है, सच कहा जाये तो मनुष्य एक मशीन की भांति क्रियाशील हो गया है।

मनुष्य जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलु हैं, सफ़लता या असफ़लता, मनुष्य की भाग-दौड इन दो पहलुओं के इर्द-गिर्द ही चलायमान रहती है, सफ़लता पर खुशियां तथा असफ़लता पर खामोशी ..... ऎसा नहीं कि जिसके पास सब कुछ है वह असफ़ल नहीं हो सकता, और ऎसा भी नहीं है कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह सफ़ल नहीं हो सकता।

सफ़लता क्या है, सफ़लता से यहां मेरा तात्पर्य संतुष्टि से है, दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि संतुष्टि ही सफ़लता है, संतुष्टि कैसे मिल सकती है, कहां से मिल सकती है, क्या संतुष्टि अर्थात सफ़लता का कोई मंत्र है।

आज हम सफ़लता के मूल मंत्र पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं, सफ़लता का मंत्र है "शरण दे दो या शरण ले लो" ... यदि आप इतने सक्षम है कि किसी व्यक्ति विशेष को शरण दे सकते हैं तो उसे आंख मूंद कर शरण दे दीजिये, वह हर क्षण आपकी खुशियों संतुष्टि के लिये एक पैर पर खडा रहेगा, आपकी खुशियों को देख देख कर खुश रहेगा, और हर पल आपको खुशियां देते रहेगा ... क्यों, क्योंकि आपकी खुशियों में ही उसकी खुशियां समाहित रहेंगी ... आप ने जो उसे शरण दी है।

... या फ़िर आंख मूंद कर किसी सक्षम व्यक्ति की शरण में चले जाओ, समर्पित कर दो स्वयं को किसी के लिये, जब आप खुद को समर्पित कर दोगे तो हर पल सामने वाली की खुशी संतुष्टि के लिये प्रयासरत रहोगे, जैसे जैसे उसे संतुष्टि खुशियां मिलते रहेंगी वैसे वैसे आप स्वयं भी खुश होते रहोगे ... उसकी संतुष्टि में ही आपको आत्म संतुष्टि प्राप्त होते रहेगी ... क्योंकि आप जो उसकी शरण में चले गये हो।

यह मंत्र आपको शासकीय, व्यवसायिक, सामाजिक व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में सफ़लता प्रदाय करेगा। साहित्यिक, धार्मिक, व्यवहारिक शब्दों में कहा जाये तो सफ़लता का मूल मंत्र "गुरु-शिष्य" के भावार्थ में छिपा हुआ है, कहने का तात्पर्य यह है कि आप गुरु बन कर शरण दे दो या शिष्य बन कर किसी की शरण में चले जाओ ... सफ़लता अर्थात संतुष्टि निश्चिततौर पर आपके साथ रहेगी।

जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Saturday, June 26, 2010

शेर दिल

खंदराओं में भटकने से , खुली जमीं का आसमाँ बेहतर
वहाँ होता सुकूं तो, हम भी आतंकी बन गये होते।

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अगर हम चाहते तो, बन परिंदे आसमाँ में उड गये होते
जमीं की सौंधी खुशबू और तेरी चाहतों ने, हमें उडने नहीं दिया।

Tuesday, June 22, 2010

"कलयुग का आदमी"

अब सोचता हूं
क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं

बदलना है थोडा-सा खुद को
बस मुंह में "राम", बगल में छुरी रखना है
ढोंग-धतूरे की चादर ओढ के
चेहरे पे मुस्कान लाना है
झूठी-मूठी, मीठी-मीठी
बातों का झरना बहाना है
"कलयुग का आदमी" बन जाना है

फ़िर सोचता हूं
कलयुग का ही आदमी क्यों !
अगर न बना, तो लोगों को
"पान" समझ कर "चूना" कैसे लगा पाऊंगा
एक औरत को पास रख कर
दूसरी को कैसे अपना बना पाऊंगा

क्या कलयुग में रह कर भी
खुद को बेवक्कूफ़ कहलवाना है
अगर न बने कलयुगी आदमी
कैसे बन पायेंगे "नवाबी ठाठ"
कहां से आयेंगे हाथी-घोडे
कैसे हो पायेगी एक के बाद दूसरी ...
दूसरी के बाद तीसरी ..... शादी हमारी

कैसे ठोकेंगे सलाम मंत्री और संतरी
कैसे आयेगी छप्पन में सोलह बरस की
कैसे करेंगे लोग जय जय कार हमारी
यही सोचकर तो "कलयुग का आदमी" बनना है

लोगों से अलग नहीं
खुद को अपने से अलग करना है
मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है
बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है
"कलयुग का आदमी" का आदमी बन जाना है !

Thursday, June 17, 2010

भ्रष्टाचाररूपी दानव

भ्रष्टाचार .... भ्रष्टाचार ....भ्रष्टाचार की गूंज "इंद्रदेव" के कानों में समय-बेसमय गूंज रही थी, इस गूंज ने इंद्रदेव को परेशान कर रखा था वो चिंतित थे कि प्रथ्वीलोक पर ये "भ्रष्टाचार" नाम की कौन सी समस्या आ गयी है जिससे लोग इतने परेशान,व्याकुल व भयभीत हो गये हैं न तो कोई चैन से सो रहा है और न ही कोई चैन से जाग रहा है ....बिलकुल त्राहीमाम-त्राहीमाम की स्थिति है .... नारायण - नारायण कहते हुए "नारद जी" प्रगट हो गये ...... "इंद्रदेव" की चिंता का कारण जानने के बाद "नारद जी" बोले मैं प्रथ्वीलोक पर जाकर इस "भ्रष्टाचाररूपी दानव" की जानकारी लेकर आता हूं।

........ नारदजी भेष बदलकर प्रथ्वीलोक पर ..... सबसे पहले भ्रष्टतम भ्रष्ट बाबू के पास ... बाबू बोला "बाबा जी" हम क्या करें हमारी मजबूरी है साहब के घर दाल,चावल,सब्जी,कपडे-लत्ते सब कुछ पहुंचाना पडता है और-तो-और कामवाली बाई का महिना का पैसा भी हम ही देते हैं साहब-मेमसाब का खर्च, कोई मेहमान आ गया उसका भी खर्च .... अब अगर हम इमानदारी से काम करने लगें तो कितने दिन काम चलेगा ..... हम नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करने लगेगा फ़िर हमारे बाल-बच्चे भूखे मर जायेंगे।

....... फ़िर नारदजी पहुंचे "साहब" के पास ...... साहब गिडगिडाने लगा अब क्या बताऊं "बाबा जी" नौकरी लग ही नहीं रही थी ... परीक्षा पास ही नहीं कर पाता था "रिश्वत" दिया तब नौकरी लगी .... चापलूसी की सीमा पार की तब जाके यहां "पोस्टिंग" हो पाई है अब बिना पैसे लिये काम कैसे कर सकता हूं, हर महिने "बडे साहब" और "मंत्री जी" को भी तो पैसे पहुंचाने पडते हैं ..... अगर ईमानदारी दिखाऊंगा तो बर्बाद हो जाऊंगा "भीख मांग-मांग कर गुजारा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा"।

...... अब नारदजी के सामने "बडे साहब" ....... बडे साहब ने "बाबा जी" के सामने स्वागत में काजू, किश्मिस, बादाम, मिठाई और जूस रखते हुये अपना दुखडा सुनाना शुरु किया, अब क्या कहूं "बाबा जी" आप से तो कोई बात छिपी नहीं है आप तो अंतरयामी हो .... मेरे पास सुबह से शाम तक नेताओं, जनप्रतिनिधियों, पत्रकारों, अफ़सरों, बगैरह-बगैरह का आना-जाना लगा रहता है हर किसी का कोई-न-कोई दुखडा रहता है उसका समाधान करना ... और उनके स्वागत-सतकार में भी हजारों-लाखों रुपये खर्च हो ही जाते हैं ..... ऊपर बालों और नीचे बालों सबको कुछ-न-कुछ देना ही पडता है कोई नगद ले लेता है तो कोई स्वागत-सतकार करवा लेता है .... अगर इतना नहीं करूंगा तो "मंत्री जी" नाराज हो जायेंगे अगर "मंत्री जी" नाराज हुये तो मुझे इस "मलाईदार कुर्सी" से हाथ धोना पड सकता है ।

...... अब नारदजी सीधे "मंत्री जी" के समक्ष ..... मंत्री जी सीधे "बाबा जी" के चरणों में ... स्वागत-पे-स्वागत ... फ़िर धीरे से बोलना शुरु ... अब क्या कहूं "बाबा जी" मंत्री बना हूं करोडों-अरबों रुपये इकट्ठा नहीं करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ... बच्चों को विदेश मे पढाना, विदेश घूमना-फ़िरना, विदेश मे आलीशान कोठी खरीदना, विदेशी बैंकों मे रुपये जमा करना और विदेश मे ही कोई कारोबार शुरु करना ये सब "शान" की बात हो गई है ..... फ़िर मंत्री बनने के पहले न जाने कितने पापड बेले हैं आगे बढने की होड में मुख्यमंत्री जी के "जूते" भी उठाये हैं ... समय-समय पर "मुख्यमंत्री जी" को "रुपयों से भरा सूटकेश" भी देना पडता है अब भला ईमानदारी का चलन है ही कहां!!!

......अब नारदजी के समक्ष "मुख्यमंत्री जी" ..... अब क्या बताऊं "बाबा जी" मुझे तो नींद भी नहीं आती, रोज "लाखों-करोडों" रुपये आ जाते हैं.... कहां रखूं ... परेशान हो गया हूं ... बाबा जी बोले - पुत्र तू प्रदेश का मुखिया है भ्रष्टाचार रोक सकता है ... भ्रष्टाचार बंद हो जायेगा तो तुझे नींद भी आने लगेगी ... मुख्यमंत्री जी "बाबा जी" के चरणों में गिर पडे और बोले ये मेरे बस का काम नहीं है बाबा जी ... मैं तो गला फ़ाड-फ़ाड के चिल्लाता हूं पर मेरे प्रदेश की भोली-भाली "जनता" सुनती ही नहीं है ... "जनता" अगर रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार अपने आप बंद हो जायेगा .... पर मैं तो बोल-बोल कर थक गया हूं।

...... अब नारद जी का माथा "ठनक" गया ... सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और प्रदेश का सबसे बडा भ्रष्टाचारी "खुद मुख्यमंत्री" अपने प्रदेश की "जनता" को ही भ्रष्टाचार के लिये दोषी ठहरा रहा है .... अब भला ये गरीब, मजदूर, किसान दो वक्त की "रोटी" के लिये जी-तोड मेहनत करते हैं ये भला भ्रष्टाचार के लिये दोषी कैसे हो सकते हैं !!!!!!

.... चलते-चलते नारद जी "जनता" से भी रुबरु हुये ..... गरीब, मजदूर, किसान रोते-रोते "बाबा जी" से बोलने लगे ... किसी भी दफ़्तर में जाते हैं कोई हमारा काम ही नहीं करता ... कोई सुनता ही नहीं है ... चक्कर लगाते-लगाते थक जाते हैं .... फ़िर अंत में जिसकी जैसी मांग होती है उस मांग के अनुरुप "बर्तन-भाडे" बेचकर या किसी सेठ-साहूकार से "कर्जा" लेकर रुपये इकट्ठा कर के दे देते हैं तो काम हो जाता है .... अब इससे ज्यादा क्या कहें "मरता क्या न करता" ...... ....... नारद जी भी "इंद्रलोक" की ओर रवाना हुये ..... मन में सोचते-सोचते कि बहुत भयानक है ये "भ्रष्टाचाररूपी दानव" ........ ....... !!!!!!!!!

Wednesday, June 16, 2010

मानव धर्म क्या है !

मानव धर्म क्या है, मानव धर्म की आवश्यकता क्यों है।

मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।

मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।

इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।

आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।मानव धर्म क्या है, मानव धर्म की आवश्यकता क्यों है।

मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।

मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।

इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।

आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।

जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

Tuesday, June 15, 2010

शेर - शेर

कौन जाने, कब तलक, वो भटकता ही फिरे
आओ उसे हम ही बता दें ‘रास्ता-ए-मंजिलें’ ।

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क्यों शर्म से उठती नहीं, पलकें तुम्हारी राह पर
फिर क्यों राह तकते हो, गुजर जाने के बाद।

Sunday, June 13, 2010

हमारा देश

हमारी जनता, हमारी सरकार
हमारा
देश, भारत महान
भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट सरकार
भ्रष्ट देश , फिर भी भारत महान

अब हाल देख लो देश का हमारे
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को निहारता है
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को सराहता है
एक भ्रष्ट दूसरे भ्रष्ट को पुकारता है

बंद करो भ्रष्टाचार
बंद करो दुराचार
बंद करो अत्याचार

कौन सुने, किसकी सुने, क्यों सुने
कौन उठाये कदम, कौन बढाये कदम
सब तो जंजीरों से बंधे हैं
सलाखों से घिरे हैं
निकलना तो चाहते हैं सभी
तोड़ना तो चाहते हैं सभी
भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, दुराचारी, भोगविलासी
सलाखों को - जंजीरों को

पर क्या करें
निहार रहे हैं एक-दूसरे को

कौन रोके झूठी महत्वाकांक्षाओं को
कौन रोके झूठी आकांक्षाओं को
कौन रोके भोगाविलासिता को
कौन रोके "स्वीस बैंक" की और बढ़ते कदमों को

कौन रोके खुद को
सब एक-दूसरे को निहारते खड़े हैं
हमारी जनता, हमारी सरकार, हमारा देश

हर कोई सोचता है
तोड़ दूं - मरोड़ दूं
जंजीरों को - सलाखों को
रच दूं, गढ़ दूं, पुन: एक देश
जिसे सब कहें हमारा देश, भारत महान !

Thursday, June 10, 2010

शेर दिल

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फूल कश्ती बन गये, आज तो मझधार में
जान मेरी बच गई, माँ तेरी दुआओं से।

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‘उदय’ से लगाई थी आरजू हमने
अब क्या करें वो भी हमारे इंतजार मे थे।

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Tuesday, June 8, 2010

हम - तुम !

फूल - खुशबू
रंग - गुलाल
जमीं - आसमां
हम - तुम

हंसते - खेलते
खट्टे - मीठे
नौंक - झौंक
तू-तू - मैं-मैं

हार - जीत
गम - खुशी
रास्ते
- मंजिलें
सफ़र - हमसफ़र

चलो -चलें
कदम - कदम
एक - एक
हम - तुम

गिले - शिकबे
तना -तनी
भूल - भुलैय्या
क्यों - क्यों

मीठे - मीठे
सपने - अपने
चलो - चलें
हम - तुम !

Monday, June 7, 2010

कल क्या है !

कल क्या है, कल किसने देखा है, कल का कल देखेंगे, कल के सपने देखना बंद करो, कल के चक्कर में आज खराब मत करो ... ऎसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिन पर समय-बे-समय चर्चा होते रहती है।

आज हम इन संपूर्ण सवालों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं, सर्वप्रथम कल, आज, और कल पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे ... कल अर्थात अतीत जो गुजर गया, भूतकाल ... आज अर्थात जो चल रहा है, वर्तमान ... कल अर्थात जो आने वाला है, भविष्य ... मनुष्य जीवन के ये तीन महत्वपूर्ण चक्र हैं भूत, वर्तमान, भविष्य।

भूत अर्थात गुजरा हुआ कल जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता ... गुजरी हुई होनी-अनहोनी, लाभ-हानि, सुख-दुख, उतार-चढाव ये सब हमें अतीत की याद दिलाते हैं जो साक्षात मनुष्य जीवन के गुजरे हुए पल हैं ... इन से कोई इंकार नहीं कर सकता।

आज अर्थात वर्तमान, जो हो रहा है, जिसे हम जी रहे हैं, जो महसूस कर रहे हैं, अच्छा-बुरा, इधर-उधर, भागम-भाग, लेना-देना, रोना-गाना, जीना-मरना ... ये वर्तमान है जिसे हम अपनी आंखों के सामने देख रहे व महसूस कर रहे हैं।

अब हम आने वाले कल अर्थात भविष्य पर प्रकाश डालते हैं, ... कल क्या है, जो अगले क्षण होने वाला है वही कल है ... कल किसने देखा है, हम ने देखा है - हम देखेंगे, क्या हम इंकार कर सकते हैं कि हम बचपन से ही आने वाले कल को देखते हुये नहीं आ रहे हैं।

कल का कल देखेंगे, उचित है यह कहना, पर कितना, ऎसे कितने मुर्ख या बुद्धिमान हैं जो कल की रणनीति आज बना कर नहीं चलते, शायद बहुत कम लोग हों, लगभग प्रत्येक समझदार आने वाले कल की योजनाएं बना कर चलता है, आज की मजबूत बुनियाद पर ही कल मजबूत इमारत खडी हो सकती है।

कल के सपने देखना बंद करो, कल के चक्कर में आज खराब मत करो, क्यों - किसलिये ... आने वाले कल की योजनाएं व सपने जितने सुनहरे होंगे संभवत: आने वाला कल भी उतना ही सुनहरा होगा ... इसलिये यह आवश्यक है कि हम कल की ओर सदैव सचेत व सकारात्मक रहें।

जिस प्रकार हम अतीत व वर्तमान से इंकार नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार आने वाले कल से भी इंकार नहीं किया जा सकता ... आने वाले कल को सपने की तरह अपनी अपनी आंखों में संजोकर रखना मनुष्य जीवन का महत्वपूर्ण पहलु है।

जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है )