महिलाओं के बिना मानव जीवन की कल्पना करना क्या उचित है ... आये दिन सुनने - पढने में आता है कि कन्याओं को जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है आखिर क्यों लोग पुत्र ही पैदा करने के लिये उत्साही हो रहे हैं, पुत्र के जन्म को गर्व का विषय क्यों माना जा रहा है, पुत्र के जन्म पर खुशियां और पुत्री के जन्म पर मायुसी का आलम .... क्यों , किसलिये !!! .... पुत्र या पुत्री के जन्म में ये भेदभाव क्या प्राकर्तिक, सामाजिक व व्यवहारिक रूप से उचित है .... नहीं, यह भेदभाव सर्वथा अनुचित है।
...जरा सोचो अगर यह सिलसिला चलता रहा तो धीरे-धीरे लडकिओं की संख्या घटते जायेगी और लडकों की संख्या बढते जायेगी, एक समय आयेगा जब चारों ओर लडके ही लडके नजर आयेंगे और लडकियां कुछेक ही रहेंगी .... जरा सोचो तब क्या होगा .... और यदि स्त्रियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाये सिर्फ़ पुरुष ही पुरुष बच जायें तब जरा सोचो क्या होगा !!! ..... कल्पना करना ही भयानक व असहजता की अनुभूति पैदा कर रहा है अगर ये सच हो जाये तब ...... उफ़...उफ़्फ़ ..... इसलिये लडका या लडकी के जन्म की प्रक्रिया में छेडछाड, भेदभाव, होशियारी सर्वथा अनुचित व अव्यवहारिक है और रहेगा।
... स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं और रहेंगे, किसी एक के बिना समाज व मानव जीवन की कल्पना करना मूर्खता के अलावा कुछ भी नही है, बुद्धिमानी इसी में है दोनों कदम-से-कदम व कंधे-से-कंधा मिलाकर एक-दूसरे के हमसफ़र बनें और प्रेम बांटते चलें।
1 comment:
विचारणीय पोस्ट उदय भाई. आभार.
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